आस्थाओं के मिनार पे चढकर,
वो लहु का व्यापार करने वाले गद्दार लोग,
हमारी आवाजों को-बन्दुकों के मोजल दिखाकर,
दबाने की हसरत दिलों मे सजाने वाले
प्रतिकृयावादीयों के बिरुध्द,
न्याय और अधिकारों के लिये,
इक क्रान्ति की उदघोष करें,
दासता की नयी जंजिरों को तोडने के लिये,
मुक्ति और समानता के नाराओं को बुलन्द करें ।
अगर तुम बाधा व्यवधान बनकर हमारे रास्तो को रोकोगे,
तो सुनले हम दहकते आग के शोले हैं
हमे छुने या स्पर्श करने की दुस्साहस ना करना,
आँधीयों की कोइ तयशुदा बहाव के रास्ते नही होते ।
आस्थाऔं की रंङ्गबिरङ्ग चोलों मे सजकर,
फिर से नये बादशाहों का –
नये संस्करण मे उदयमान हो रही है,
हमारे देश को रक्तरंजित करने के लिये,
वो तैयार बैठे हैं,
लो अब हम भी तैयार बैठे हैं,
आमने सामने की मुठभेड के लिये ।
हमारे भावनाओं पे तुमहारी नियन्त्रण हो हम होने नही देंगे,
मत सोंचो तुम ऐ देश के ठेकेदारों,
हत्या और दमन की पटाक्षेप करके,
कल की वो स्वर्णिम भविष्यों प्रति
लूटी हुइ छिनी गइ वो स्वतन्त्रता की गर्दन तुम
दबाउने की,
हम-ऐसी नियति की बिरुध्द हैं,
स्वतन्त्रता की साम्राज्य बहाल करने को,
क्रान्ति की स्पन्दन करना जरुरी है,
स्पन्दन रे बगैर सपने नही होते ,
और,सपनों के बगैर क्रान्ति नही होती।
मनुष्यों की चेतना इक आग है,
और आग को शोलों की तरह जलना होता है,
आग इक बिचार भी है,
अब मनुष्यों के आस्थाओं को बिष्फोटक भी होना होगा,
रक्त रंगिन सामन्ती सोच को
मजदूर के पसिनों से सिंंचन करके ,
बर्गमुक्ति के बाद की क्रान्तिओं मे जुटकर,

जनमुक्ति का उदघोष करें,
बर्ग षत्रुकी –
यातनाओं की वो काली रात की अन्त्य हो रही है,
वो देखो भोर सुबह उज्यारे की आगमन हो रही है ।।

                                देवेन्द्रकिशोर ढुंगाना
                                 भद्रपुर,झापा(नेपाल)

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