राजवंशी भाषिक कविता : “चाँन मति”

चाँन ते तुई .. घर बाँन्लो ना,
मन ते तुई .. घर बाँन्लो गे।
इला बाँस/बत्ती त .. महरे छिले,
ना कुर्हाएने दस्रातिर से .. आँन्लो गे।।

सङ्गे छिने त .. पहिले एके लाखा,
जै काथा कहिस्नु .. सेइ माँन्लो गे।
आझी त काम्छारअ खेच्ले .. लागेचे झाग्रा,
ना हिँसारे बाहाँन .. तुई फाँन्लो गे ।।

पहिले त निछिले तोर .. एनङ् नखरा,
आझी कुन दाग लागाए .. मोक साँन्लो गे।
तोर बँलीलाअ लागेचे .. टाँना आर घिँचा,
इला ब्यबहार कुन्हा से .. आँन्लो गे ।।

जे छे ते कहे दे .. सत्-सत् काथा ,
ना जानिए काँहार काथा .. माँन्लो गे।
माया त हचे माया .. मायारे लाखा ,
कुन दोषे माँथार् .. तुई टाँन्लो गे ।।

मायाते भिरिचेना काँह? .. प्रेमेर दुषिया,
तले तले चाँन मति हबा .. जाँन्लो गे।
टाँकापैसाते हचे कहचे .. मायार व्यापार,
ना उराएने चाँन्डते घर .. बाँन्लो गे ।।

 

कचनकवल :- ३, दल्की झापा
हाल :- मलेसिया
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