बिसंगती कविता 

यिड् ..मोर देहा ,
होले रे .. बेसार्दा।
आफ्नार .. देहा साँनिए,
बेनानु रे .. पोरोक गाँर्दा ।।

झुक्झुक्या लदी .. देखाले रे लोक्ला,
मुहे नि अन्छानु .. रे चँर्ता।
देहा मोर .. चिल्किए उठिल्
फेर आफ्ने .. हनु रे बँर्का ।।

हाँसुवा खेलुवा ..फेर, सभेला जानू,
लोक्ला ताँह कहचे ..आल्सीया झँर्का।
काँन छे ते , मोर .. भाँने , रे नाँई ?
मोर काने त .. नाँहए चँर्खा ।।

पुर्खा से .. जीवन पाँनु मुई,
उलीभाँसते .. लागिल रे हर्का।
चिल्का देहार .. पहिचान उठाँए
मोर के बुझे .. रे पीर मार्खा ??

हुश-हावाँस .. गटेलाए छे मोर,
यिड् देशे .. हईचे रे मुख-फर्का।
मुई मुथा .. टाँनिए हबाए नाँ कि?
मोर देहाते .. लागिचे रे धँर्का ।।

 

जोगेन्द्र प्रसाद राजवंशी 
कचनकवल :-३, दल्की झापा
हाल :- मलेसिया

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